प्रकृति की गोद में टौंस नदी के तट पर बसा हनोल स्थित महासू देवता मन्दिर (Mahasu Devta Temple) कला और संस्कृति की एक बहुत ही अनमोल धरोहर है। वास्तुकला की दृष्टि से यह मंदिर काफ़ी महत्वपूर्ण है और इसका निर्माण नवीं शताब्दी के आस-पास का माना जाता है। देहरादून से हनोल की दूरी कम होने के बावजूद भी थोड़ी कठिन जान पड़ती है पर चकराता से आगे बढ़ने पर प्रकृति ने पता नहीं ऐसा क्या जादू किया कि लम्बे रास्ते की सारी उकताहट और दुर्गम रास्ते से हुई थकान पता नहीं कहां खो गई।
देह और आत्मा में एक नयी ऊर्जा का संचार होने लगा।
इस बात को मैंने बहुत अच्छी तरह से महसूस किया है कि धर्म और आस्था रखने वाली जगहों पर धर्म और आस्था से इतर भी एक बहुत ही सकारात्मक ऊर्जा का वास होता है। अगर मन शांत और आत्मा तृप्त हो तो बहुत ही आसानी से इस ऊर्जा को अपने भीतर महसूस किया जा सकता है। मैं हनोल स्थित महासु देवता मंदिर (Mahasu Devta Temple) के ऐसे ही किसी ऊर्जा के क्षेत्र में हूं। प्रकृति के एक सुखद अहसास को जी रहा हूं। हालाँकि बाकि कई अन्य चीजें भी साथ-साथ चल रही हैं। जैसे कि कुछ इस जगह से जुड़ी कहानियां और धार्मिक मान्यताएं।
मेरी एक किसी महात्मा से मिलने की इच्छा थी ताकि इस आस्था को बांधने वाली शक्तियों का अवलोकन किया जा सके। आखिरकार एक सज्जन मुझे वहां ले गए। धार्मिक अनुष्ठान कराने और प्रवचन के अक्सर उन्हीं को आमन्त्रित किया जाता था।
मेरे अंदर आस्था बस उतनी ही जितनी कि मानवता होती है।
मैंने उन्हें प्रणाम किया और कहा कि आपसे मिलने की इच्छा लेकर आया हूं ताकि मेरे ज्ञान में कुछ वृद्धि हो सके।
उन्होंने मेरे कहे का सम्मान किया और बताया कि महासू देवता (Mahasu Devta Temple) एक नहीं बल्कि चार देवताओं का सामूहिक नाम है और स्थानीय भाषा में महासू शब्द महाशिव का अपभ्रंश है। इस बात से इतना तो मुझे स्पष्ट हो गया कि यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। फिर चारों महासू भाईयों के नाम ( बासिक महासू, पबासिक महासू, बूठिया महासू और चालदा महासू ) बताते हुए उन्होंने ख़ुद भी कहा कि सभी को भगवान शिव का ही रूप माना जाता है।
महासू देवता (Mahasu Devta Temple) हमारे लिए न्याय के देवता और मन्दिर न्यायालय का प्रतीकात्मक रूप है। उत्तराखंड के उत्तरकाशी, जौनसार-बावर क्षेत्र, रंवाई परगना और हिमाचल प्रदेश के सिरमौर, सोलन, शिमला, बिशैहर और जुब्बल तक इनकी पूजा होती है।
इन दोनों प्रदेशों में महासू देवता के कई मन्दिर (Mahasu Devta Temple) हैं। इन मंदिरों में महासू देवता के अलग अलग रूपों की अलग-अलग जगहों पर पूजा होती है। उन्होंने यह भी बताया कि टौंस नदी के बायें तट पर बावर क्षेत्र में हनोल में मन्दिर में बूठिया महासू तथा मैन्द्रथ नामक स्थान पर बासिक महासू की पूजा होती है। पबासिक महासू की पूजा टौंस नदी के दायें तट पर बंगाण क्षेत्र में स्थित ठडियार, जनपद उत्तरकाशी नामक स्थान पर होती है।
सबसे छोटे भाई चालदा महासू भ्रमण प्रिय देवता है जो कि बारह वर्ष तक उत्तरकाशी और बारह वर्ष तक देहरादून जनपद में भ्रमण करते हैं। जिनमें से इनकी एक-एक वर्ष तक अलग-अलग स्थानों पर उपासना होती है जिनमें से हाजा, बिशोई, कोटी कनासर, मशक, उदपाल्टा, मौना आदि उपासना स्थल प्रमुख हैं।
घुमक्कड़ होने के नाते मेरा झुकाव अनायास ही चालदा महासू की तरफ हो आया। देवता भी घुमक्कड़ हो सकते हैं ? मैंने मन में ही सोचा और फिर नारद जी को याद किया। प्रभु आपसे बड़ा घुमक्कड़ कौन हुआ होगा? आप तो पूरे ब्रह्मांड में विचरण करते रहे हैं। कभी इस धरती पर भी आइए और हम घुमक्कड़ों के जीवन में भी आस्था का संचार करिए।
इस मिलने मिलाने के फेर में थोड़ा बहुत गांव को भी देखा। जिस तरह से हनोल के स्थानीय लोगों ने अपने प्रयासों और सीमित संसाधनों के बल पर सैलानियों को रुकने और ठहरने कि रियायती व्यवस्था की है, उसकी दाद देनी पड़ेगी।
सचमुच, ग्रामीण पर्यटन का यह एक अनोखा उदाहरण है।
सुबह घूमते हुए मुझे गांव और आसपास के क्षेत्र में कई बकरे दिखाई दिए। मुझे लगा कि यह जंगली बकरे होंगे। लोगों से पूछने पर पता चला कि यह बली के बकरे हैं।
मेरे यहां तो बकरे को बली में बकरे को मार दिया जाता है। यहां तो बली के बकरों को इतना आजाद देखकर बकरा बनने का मन कर जाए। वह मेरी बात सुनकर हंसे और कहा कि मन्दिर में प्रसाद के रूप में आटा और गुड़ चढ़ाया जाता है। जिसे स्थानीय भाषा में हम लोग कढ़ाह चढ़ाने कहते हैं। इस कढ़ाह के साथ 24 रूपये की भेंट भी चढ़ाई जाती है।
कई श्रद्धालु मन्दिर में बकरा भी अर्पित करते हैं। परन्तु बकरा अर्पित करने के दो रूप हैं पहला ये कि बकरे को अभिमन्त्रित जल के साथ सिहरन देकर देवता को अर्पित किया जाता है। अभिमन्त्रित जल के साथ सिहरन देने की यह प्रकिया स्थानीय भाषा में धूण कहलाती है। इस धूण के बाद यह माना जाता है कि देवता ने बकरा स्वीकार कर लिया और उसके बाद उसे जीवित छोड़ दिया जाता है। ये बकरे मन्दिर परिसर (Mahasu Devta Temple) और हनोल गांव में यत्र-तत्र घूमते देखे जा सकते हैं।
दूसरे रुप में बकरा देवता को अर्पित कर बलि दिये जाने का है। लेकिन इस बात को लेकर अलग अलग मत है। कुछ लोग कहते हैं अब मन्दिर में बलिप्रथा खत्म कर दी गई है और कुछ लोग कहते हैं कि देवता को अर्पित कर बकरे की बलि मन्दिर परिसर (Mahasu Temple) से बाहर दी जाती है। अगर धार्मिक संदर्भों का सहारा लिया जाए तो महासू देवता शिव के प्रतिरूप है और शिव को कहीं भी बलि नहीं दी जाती है।
लेकिन सच्चाई यह है कि यहां जानवरों की बली दी जाती है। जिसका स्पष्ट वर्णन एक पौराणिक कथा में मिलता है। पौराणिक कथाओं में महासू देवता की उत्पत्ति के बाद किरविर दैत्य का वध करते समय कैलू वीर ने किरविर दैत्य को आबद्ध किया और शेडकुडिया वीर ने उसका वध किया था इसलिये महासू देवता ने नियम बनाया कि शेडकुडिया वीर को प्रत्येक संक्रांति को रोट और बकरे का गोश्त दिया जायेगा। जिसका एक भाग कैलू वीर को भी दिया जायेगा।
अत: यह बलिप्रथा उसी नियम के अनुसार देवता के मांसभक्षी वीरों के निमित्त है जो वर्षों से चली आ रही है।
आखिर बात वहीं आकर रुक गई कि बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी ?