कालिदास और विद्योत्तमा (kalidas Vidyotma) : केदारघाटी को अगर हम देवों की घाटी कहें तो भी किसी को आश्चर्य नहीं होगा। इस जगह पर ओंकारेश्वर और मध्यमहेश्वर मंदिर के अलावा कई अन्य देव स्थान युगों-युगों से मौजूद हैं जो इस जगह को धार्मिक और पौराणिक समृद्ध बनाते हैं। इस जगह पर एक तरफ सुन्दर प्राकृतिक वातावरण हैं तो दूसरी तरफ कई आदिकालीन मंदिर।
पिछले ब्लॉग में हमने केदारघाटी में स्थित उखीमठ की बात की थी जो उषा और अनिरुद्ध की प्रेम कहानी की प्रेमकथा का प्रतीक है। आज इस ब्लॉग में कालीमठ की बात करेंगे जो कालिदास और विद्योत्तमा (kalidas Vidyotma) के प्रेम प्रसंग से जुड़ी हुई जगह है। यह जगह भी केदारघाटी के अंदर ही आती है। इसलिए अगर कोई उखीमठ में घूमने आता है तो कालिदास के जन्मस्थान पर भी जाना चाहिए और इस कहानी के मर्म को समझने की कोशिश करनी चाहिए।
संस्कृत भाषा के महान कवि कालिदास
कालिदास को संस्कृत भाषा के महान कवि के रूप में जाना जाता है। अभिज्ञान शकुंतलम उनका एक ऐसा नाटक है जिसे शायद ही कोई नहीं जनता हो, ऐसे ही एक और रचना मेघदूत है। इस रचना को दूत वाक्य के रूप में जाना जाता है जिसमें यक्ष की कहानी है। वह बादलों की मदद से अपने प्रेम संदेश अपने प्रेमिका तक पहुंचाता है।
यह दोनों ही ग्रंथ कालिदास की रचनाशीलता के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। पढ़ने वाले इस बात को भलीभांति जानते हैं कि कालिदास ने अपनी रचनाओं में प्रकृति का चित्रण कितने सुंदर तरीके से किया है। हमें उनकी रचनाओं में सुंदर, मधुर और अलंकार युक्त भाषा का विधिवत प्रयोग मिलता है। कालिदास सौंदर्यता के कवी थे। हमें उनकी रचनाओं में शृंगार रस की प्रधानता है। कालिदास ने विद्योत्तमा (kalidas Vidyotma) के साथ विवाह किया था।
कालिदास के जन्म को लेकर विभिन्न मत
कालिदास के जन्म को लेकर अलग-अलग मत है। उनका जन्म असल में कब और कहां हुआ ये किसी को भी नहीं पता। इस बात को लेकर तरह तरह की बातें सामने आती हैं परानु सही और प्रमाणिक जानकारी कहीं भी उपलब्ध नहीं। मेघदूत ग्रंथ में कालिदास ने उच्चैठ का वर्णन किया है जिसकी वजह से कुछ लोगों का मत है कि उनका जन्म उज्जैन में हुआ होगा और कुछ का मानना है कि कालिदास का जन्म उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग के कालीमठ ( कविल्ठा गांव ) में हुआ था।
कालिदास के प्रवास के कुछ साक्ष्य बिहार के मधुबनी जिला के उच्चैठ में भी मिलते हैं। कहा जाता है विद्योतमा से शास्त्रार्थ में पराजय के बाद कालिदास यहीं के एक गुरुकुल में रुके। कालिदास को इसी जगह पर उच्चैठ भगवती जी से ज्ञान की प्राप्ति का वरदान प्राप्त हुआ था। इस जगह पर वर्तमान में कालिदास का डीह है। यहां की मिट्टी से बच्चों के प्रथम अक्षर लिखने की परंपरा आज भी यहाँ प्रचलित है।
कुछ लोगों ने तो उन्हें बंगाल का भी साबित करने की कोशिश किया है। कहते हैं कि कालिदास की श्रीलंका में हत्या कर दी गई थी लेकिन कुछ विद्वान इसे भी कपोल-कल्पित मानते हैं।
कालिदास और विद्योत्तमा का प्रेम प्रसंग
कालिदास का विवाह विद्योत्तमा (kalidas Vidyotma) के साथ हुआ जिसे कालिदास के जीवन की प्रमुख घटना कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि कालिदास का जीवन बहुत ही सहज और सामान्य था लेकिन विद्योत्तमा को अपने ज्ञान पर बहुत नाज़ था। दूसरी सबसे बड़ी बात यह कि कालिदास सामान्य परिवार से से और विद्योत्तमा एक राजकुमारी थी।
विद्योत्तमा ने यह घोषणा की थी कि जो शास्त्रार्थ में मुझे पराजित करेगा मैं उसी से विवाह करूंगी। बहुत से विद्वान विधोतमा से विवाह करने के लिए आए परंतु सभी विद्वान पराजित होकर चले गए। सभी विद्वान विद्योत्तमा से मन ही मन प्रतिशोध लेने की सोचने लगे। वह एक ऐसे व्यक्ति की तलाश कर रहे थे जो विद्योत्तमा को शास्त्रार्थ में पराजित कर सके। तभी कालिदास मिले और उन्होंने विधोत्तमा के सवालों का जवाब देकर शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया।
कालिदास का विवाह विद्द्योत्तमा (kalidas Vidyotma) से हो गया पर कालिदास का सामान्य जीवन और सहज ज्ञान उसे रास नहीं आया तो उसने उन्हें घर से निकल दिया और कहा कि जब तक पूर्ण ज्ञान और प्रसिद्ध न पा लेना, घर वापस नहीं आना। इस बात से उनके दिल को ठेस लगी और कालिदास एक महान कवि और ज्ञानी बने।
काली के दिव्य दर्शन का प्रतीक कालीमठ
धार्मिक मान्यता है कि दुष्टों का संहार करने वाली मां भगवती के दर्शन से मात्र सारे पाप धुल जाते हैं। मां काली अच्छे लोगों को फल व बूरे लोगों को परिणामस्वरूप दण्ड देती है। ऐसा माना जाता है कि आज भी मां काली अपने भक्तों पर अपनी दृष्टि बनाई हुई हैं। मां काली के वैसे तो अनेकों मंदिर हैं लेकिन उत्तराखण्ड में स्थित कालीमठ एक ऐसा मंदिर है जहां मां काली स्वंय निवास करती हैं।
इस मंदिर की मान्यता की वजह से इस रहस्य की भी भारतीय जनमानस में अच्छी-खासी मान्यता है। भक्तों और स्थानीय लोगों का कहना है कि इस मंदिर में मां काली के होने का अहसास होता है। केदारनाथ की चोटियों से घिरे सरस्वती नदी के किनारे इस प्रसिद्ध शक्ति सिद्धपीठ का होना सैलानियों को अपनी तरफ आकर्षित करता है।
धार्मिक स्थल के साथ साथ यह प्रदेश का प्रमुख पर्यटन स्थल भी है।
कालीमठ मंदिर से जुड़े कुछ रोचक तथ्य
कालीमठ में स्थित शक्ति सिद्धपीठ उत्तराखण्ड के सबसे प्रसिद्ध और शक्तिशाली मंदिरों में शुमार है। इस मंदिर में देवी की मूर्ती की नहीं बल्कि एक कुंड की पूजा कि जाती है। यह कुंड रजतपट श्री यन्त्र से ढका हुआ है। इस मंदिर में तंत्र विद्याओं का वास है और मंदिर को पूरे साल में शारदे नवरात्री में अष्टमी के दिन खोला जाता है, जहां अष्टमी की मध्यरात्रि के दिन कुछ ही मुख्य पूजारी रहते हैं जो इस कुंड कि पूजा करते हैं। साथ ही इस दिन दिव्य शक्ति के लिए मंदिर को शारदे नवरात्रि के दिन खोला जाता है। स्कंदपूराण के मुताबिक़ देखा जाए तो केदारनाथ के 62वें अध्याय में इस अनोखे और रहस्यमयी मंदिर का उल्लेख किया गया है।
कालीमठ में तीन अलग-अलग भव्य मंदिर है जहां मां काली के साथ माता लक्ष्मी और मां सरस्वती की पूजा की जाती है। कालीमठ मंदिर में एक दिव्य चट्टान भी है जहां आज भी मां काली के चरण पादुका के निशान मौजूद हैं और इस चट्टान को काली शिला के नाम से भी जाना जाता है। मां काली के पैरों के निशान से जुड़ी एक रोचक बात है ऐसा कहा जाता है कि मां दुर्गा शुम्भ, निशुम्भ और रक्तबीज दानव का संहार करने के लिए कालीशीला में 12 वर्ष की बालिका रूप में प्रकट हुई थी।
कालीशीला में देवी देवता के 64 यन्त्र है, मां दुर्गा को इन्ही 64 यंत्रो से शक्ति प्रदान हुई थी। कहते है कि इस स्थान पर 64 योगनिया विचरण करती रहती है। मान्यता है कि इस स्थान पर शुंभ-निशुंभ दानवों से तंग आकर सभी देवी देवताओं ने मां भगवती की तपस्या कि थी जिसके बाद मां काली प्रकट हुई और असुरों के आतंक के बारे में सुनकर मां का शरीर क्रोध से काला पड़ गया और उन्होंने विकराल (भयावह) रूप धारण कर युद्ध में दोनों दानवों का वध कर दिया था।
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